सन्तो की वाणी
भगवान महावीर की वाणी
bhagwan mahiver ji ki vani -mahavir ji ke vachan
सन्तो की वाणी में आपको भारत के सन्त और महापुरूषों के मुख कही हुवी व लिखे हुवे प्रवचनों की कुछ झलकियां आपके सामने रखेंगे । आप इसे ग्रहण कर आगे भी शेयर करें जिससे आप भी पुण्य के भागीदार बने ।
तप
तप दो प्रकार का है – बाह्म और आभ्यंतर। बाह्म तप छह प्रकार का है। इसी तरह आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है। mahavir-ji-vachan-2
अनशन, अपमोढ्र्य (ऊनोदरिका), भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता इस तरह बाह्म तप छह प्रकार का है।
जो कर्मो की निर्जरा के लिए एक दो दिन आदिका (यथाशक्ति ) प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है।
जो शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) के लिए अल्प आहार करते है, वे ही आगम में तपस्वी माने गये है। श्रुतिविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार करना है – भूखे मरना है।
वास्तव में वही अनशन-तप है, जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) न हो तथा मन-वचन-कायरूप योगों की हानि (गिरावट) न हो।
संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अतः जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।
जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम से कम एक सिक्थ अथवा एक कण अथवा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्य रूपेण ऊनोदरी तप है।
आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है, जिसमें वह ग्रहण का प्रमाण करता है, कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों में जाऊँगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया या अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूँगा, अमुक प्रकार का जैसे माॅड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूँगा, आदि आदि।
दुध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि के रसों के त्याग को रस-परित्याग नामक तप कहा गया है।
एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) तथा स्त्री-पुरूषादि से रहित स्थान में शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्त शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है।
गिरा, कंदरा आदि भयंकर स्थानों में, आत्मा के लिए सुखावह, वीरासन आदि उग्र आसनों का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है।
सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को अपनी शक्त ी के अनुसार दुःखों के द्वारा अर्थात कायक्लेशपूर्वक आत्म-चिन्तन करना चाहिये।
रोग की चिकित्सा में रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख ही। चिकित्सा कराने पर रागी को दुःख भी हो सकता है और सुख भी। इसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुःख दोनो हेतु नहीं होते। मोह के क्षय में प्रवृत्त होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुःख भी। (कायक्लेश तप में साधक को शरीरागत दुःख या बाह्म व्याधियों को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहक्षय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी नहीं होता)
प्रायश्रिच्त्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) इस तरह छह प्रकार का आभ्यंतर तप है।
व्रत, समिति, शील, सयंम-परिणाम, तथा इन्द्रिय-निग्रह का भाव, ये सब प्रायश्रिच्त्त तप है, जो निरंतर कर्तव्य-नित्य करणीय हैं।
क्रोध आदि स्वकीय भावांे के क्षय वा उपशम आदि की भावना करना तथा निजगुणों का चिन्तन करना निश्रचय से प्रायश्रिच्त्त तप हैं। mahavir-ji-vachan-2