सन्तो की वाणी
भगवान महावीर की वाणी
bhagwan mahiver ji ki vani -mahavir ji ke vachan
सन्तो की वाणी में आपको भारत के सन्त और महापुरूषों के मुख कही हुवी व लिखे हुवे प्रवचनों की कुछ झलकियां आपके सामने रखेंगे । आप इसे ग्रहण कर आगे भी शेयर करें जिससे आप भी पुण्य के भागीदार बने ।
तप (भाग 2)
बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष व्यक्त कर देता है, वैसे ही साधु को भी अपने समस्त दोषों की आलोचना माया-मद (छल-छù) त्यागकर करनी चाहिए।mahiver-ji-vani-2
जैसे काँटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा होती है और काँटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात सर्वाड़ग-सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरू के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है- मन में कोई शल्य नहीं रह जाता।
गुरू तथा वृद्धजनों के समक्ष आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना, उन्हें उच्च-आसन देना, गुरूजनों की भावपूर्वक भक्ति तथा सेवा करना विनय तप है।
दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चरित्र-विनय, तप-विनय और औपचारिक-विनय ये विनय-तप के पाँच भेद कहे गये है, जो पंचमगति अर्थात मोक्ष में ले जाते हैं।
एक के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है, और एक की पूजा में सबकी पूजा होती हैं (इसलिए जहाँ कहीं कोई पूज्य या वृद्धजन दिखायी दें, उनका विनय करना चाहिये।)
विनय जिन शासन का मूल संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ?
विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है।
विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयहीन विद्या फलप्रद नहीं होती , जैसे बिना जल के धान्य नहीं उपजता।
शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूत्रविसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप है।
जो मार्ग में चलने से थक गये है, चोर, श्रवापद (हिंस्त्रपशु), राजा द्वारा व्याधित, नदी की रूकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार सम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत तप है।
परिवर्तना, वचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तूतिमंगपूर्वक धर्मकथा करना यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है।
आदर-स्त्कार की अपेक्षा से रहित होकर, जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्ति पूर्वक जिन शास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-परसुखकारी होता है।
स्वाध्यायी अर्थात शास्त्रों का ज्ञात साधु पाँच इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है।
ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती हैं। निर्जरा का फल मोक्ष हैं अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए।
भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने मे व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत रहना, छटा कायोत्सर्ग तप है।
उन महाकुल वालो का तप भी शुद्ध नहीं है जो प्रवज्या धारण कर पूजा-सत्कार के लिए तप करते है। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह का तप करना चाहिए, कि दूसरे लोगों को पता तक न चले । अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिये। mahiver-ji-vani-2