सन्तो की वाणी
श्री रामचन्द्र जी की वाणी
santo ki vani
जो व्यक्ति अपने कर्तव्य-पथ का अनुसरण करता है. उसे अपने बड़े भाई, अपने जन्मदायक पिता और विद्या प्रदान करनेवाले गुरु इन तीनों को पिता के समान मानना चाहिए. नीति के अनुसार छोटे भाई, पुत्र और सदगुणी शिष्य को अपनी सन्तान के समान मानना चाहिए.
तुम्हें भीड़ के साथ मिलने से यथासम्भव बचना चाहिए. किसी पवित्र एकान्त स्थान में निवास करो और कुटिल लोगों की संगति मत करो. एकाकी रहने का प्रयास करो और वेदों. वेदान्तों और उनके भाष्यों का अनुशीलन करते हुए तथा समस्त वैदिक कर्मों का सम्पादन करते हुए परमात्मा को जानने की चेष्टा करो.
जैसे वर्षाकाल में नदी में भँवरोें की एक श्रृंखला पैदा हो जाती है. वैसे ही धन भी मूढ़ जनों को अहंकार और दर्प के भँवर में चक्राकार घुमाता रहता है.
सदाचारी व्यक्ति के लिए भी कर्तव्य अत्यन्त गहन होता है तथा उसे समझना सहज नहीं होता. हृदयस्थित आत्मा ही यह जानती है कि क्या सही है क्या गलत है.
जीवन एक ऐसी नदी है, जो अपना प्रवाह कभी विपरीत नहीं करती. अतः व्यक्ति का जीवन समय के साथ घटता ही चला जाता है.
जो रात बीत जाती है, वह फिर नहीं लौटती. गंगा अपना जल महासागर में भले मिला देती है, पर कभी भी अपना प्रवाह पीछे नहीं मोड़ती.
इस पृथ्वी को कोई भी व्यक्ति प्रकृति के इस नियम से मुक्त नहीं हो सकता. अतएव मृतक के लिए शोक करना व्यर्थ है. जब समय आ जाता है तब कोई व्यक्ति बच नहीं पाता.
धन की देवी तरंगो के समान चंचल होती है. वह किसी एक के साथ सदा के लिए नहीं रहा करती. इसी प्रकार यौवन भी अत्यल्प होता है. स्त्री-प्रसंग से तुम्हें जो सुख मिलता है, वह स्वप्नवत् होता है. तुम्हारी जीवनावधि इतनी कम है.
मन इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के बाद भी ठीक वैसे ही कभी सन्तुष्ट नहीं होता. जैसे छिद्रयुक्त पात्र को कितना भी जल डालकर भरा नहीं जा सकता.
यह मिथ्या विचार कि यह शरीरादि ही आत्मा है, माया है तथा आत्मा को शरीर से अभिन्न मानने के कारण ही यह संसार मानसिक रूप से निर्मित हुआ है.
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