सन्तो की वाणी
स्वामी विवेकानन्द के विचार
swami vivekananda vichar – vivekananda quotes in hindi
सन्तो की वाणी में आपको भारत के सन्त और महापुरूषों के मुख कही हुवी व लिखे हुवे प्रवचनों की कुछ झलकियां आपके सामने रखेंगे । आप इसे ग्रहण कर आगे भी शेयर करें जिससे आप भी पुण्य के भागीदार बने ।
प्रेम और निःस्वार्थता
आवश्यकता है केवल प्रेम, निश्छलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानी प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। vivekananda-vani-3
डरो मत मेरे बच्चो। अनन्त नक्षत्रखचित आकाश की ओर भयभीत द ृष्टि से ऐसे मत ताको, जैसे कि वह हमें कुचल ही डालेगा। धीरज धरो। देखोगे कि कुछ ही घण्टों में वह सबका सब तुम्हारे पैरों तले आ गया है। धीरज, न धन से काम होता है. न नाम से, न यश काम आता है, न विद्या प्रेम ही से सब कुछ होता है।
जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नही दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है ?
कर्तव्य का पालन शायद ही कभी मधुर होता हो। कर्तव्य-चक्र तभी हलका और आसानी से चलता है, जब उसके पहियों में प्रेमरूपी चिकनाई लगी होती है, अन्यथा वह एक अविराम घर्षण मात्र है। यदि ऐसा न हो, तो माता पिता अपने बच्चो के प्रती पत्नी के प्रति पति अपनी पत्नी के प्रति तथा पत्नी अपने पति के प्रति अपना अपना कर्तव्य कैसे निभा सकें? क्या इस घर्षण के उदाहरण हमें अपने दैनिक जीवन में सदैव दिखायी नहीं देते? कर्तव्य-पालन की मधुरता प्रेम में ही हैं।
प्रेम कभी निष्फल नहीं होता मेरे बच्चे, कल हो या परसां या युगों के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान जीतेगा। क्या तूम अपने भाई- मनुष्य जाति-को प्यार करते हो ? ईश्वर को कहाँ ढूँढने चले हो-ये सब गरीब, दुःखी, दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं ? इन्हींकी पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करे।
क्या तुम्हारे पास प्रेम हैं ? तब तो तुम सर्वशक्ति मान हो। क्या तूम सम्पूर्णतः निःस्वार्थ हो ? यदि हो ? तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता हैं ?
निःस्वार्थपरता ही धर्म की कसौटी है। जिसमें जितनी ही अधिक निःस्वार्थपरता है वह उतना ही आध्यात्मिक है।
यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है, तो चाहे उसने संसार के सब मन्दिरों के ही दर्शन क्यों न किये हो, सारे तीर्थ क्यों न गया हो ओर रंग भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीता जैसी क्यों न बना ली हो, शिव से वह बहुत दूर हैं।
सर्वत्र निःस्वार्थता की मात्रा पर ही सफलता की मात्रा निर्भर रहती हैं।
निःस्वार्थता अधिक फलदायी होती है, केवल लोगों में इसका अभ्यास करने का धैर्य नहीं होता। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह अधिक लाभदायक हैं।
प्रेम, सत्य तथा निःस्वार्थता नैतिकता सम्बन्धी आलंकारिक वर्णन मात्रा नहीं हैं। वरन शक्ति की महान अभिव्यक्ति होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं।
सदा विस्तार करना ही जीवन है और संकोच मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब है, आलसी है, उसके लिए नरक में भी जगह नहीं हैं। vivekananda-vani-3