सन्तो की वाणी
करवा चौथ की कथा
Karva Chauth Vrat Katha
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन रत्नावली थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहां तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन करवा चौथ को ससुराल से मायके आई हुई थी।
शाम को भाई जब अपना व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्य देकर ही खा सकती है। चूंकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।
भाई से अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चांद निकल गया । इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चांद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे चांद को देखती है, उसे अर्घ्य देकर खाना खाने बैठ जाती है।
वह पहला टुकड़ा मुंह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है । और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुंह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।
उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है। सच्चाई जानने के बाद रत्नावली निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी । और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन कर के रहेगी। उसने किसी की नहीं सुनी और जिद्द करके झोंपड़ी बनाकर उसमें रहने लगी । सासू उसे बची-खुची रोटी रोज दे देती थी ।
थोड़े दिनों में मिगसर की तिल चौथ आई और बोली, करवा ले करवा ले भाईयों की बहना करवा ले । पापिनी, हत्यारिनी करवा ले, दिन में चांद देखने वाली करवा ले । इतना सुनकर उसने उस चौथ माता के पांव पकड़ लिए और बोली हे चौथ माता ! मेरा उजड़ा सुहाग आपको देना ही पड़ेगा मेरे पति को आपको जिन्दा करना पड़ेगा चौथ माता बोली, वैशाख की चौथ मुझसे बड़ी वही तेरा सुहाग तुझे देगी । वैशाख की चौथ आई तो उसने कहा भादवे की चौथ तुझे सुहाग देगी । और भादुवे की चौथ आई तो उसने कहा, सबसे बड़ी करवाचौथ है जो कार्तिक मास में आती है । वही तुझे तेरा सुहाग दे सकती है वही तुझसे नाराज है ।
करवाचौथ माता आये तो उसके पैर मत छोड़ना जबतक वह तेरे पति को जिन्दा नहीं करे तब तक उनको पकड़े रखना । वह रोज पति की साफ-सफाई करती, कपड़े बदलती और चौथ माता को याद करती रहती । थोड़े दिन बाद करवाचौथ आयी और बोली करवा ले करवा ले भाईयों की बहना करवा ले ।
पापिनी, हत्यारिनी करवा ले, दिन में चांद देखने वाली करवा ले । व्रत भंग करने वाली करवा ले । उस भाइयों की बहन ने करवाचौथ माता के पांव पकड़ लिये रोने लगी और बोली चौथ माता मुझसे गलती हो गयी में ना समझ थी मुझे इतनी बडी सजा मत दो । क्योंकी आप तो सबके दुःखों को दूर करने वाली हो इसलिए आपको मेरा सुहाग देना ही पड़ेगा । तब चौथ माता ने खुश होकर आँखो में से काजल तथा नाखूनों में से मेहन्दी, बिन्दी में से रोली निकालकर छोटी अंगुली से उसके मरे हुए पति पर छाँटे दिये । छिंटे देते ही उसका पति उठकर बैठ गया और बोला मैं तो बहुत सेाया हूं । पत्नि बोली मुझे तसे बारह महिने हो गये सोयी ही नहीं ।
मुझे तो आज चौथ माता ने ही सुहाग दिया है । तब पति ने कहा हमें चौथमाता का विधि-विधान से उजमन करना चाहिये । जब उसने चौथ माता का व्रत व उजमन किया, कहानी सुनी करवे की पुजा करी, चूरमा बनाकर चन्द्रमा जी को अर्ध्य देकर दोनों जनों ने भोजन किया ।
हे चौथ माता जैस उस भाईयों की बहन के सुहाग की रक्षा करी वैसे ही सबकी करना । कहने सुनने वालों की, हुंकारा भरने वालों की सबकी रक्षा करना । हाथ जोड़कर चौथ माता की जय बोलनी चाहिये । इसके बाद गणेश जी की कहानी कहनी चाहिये ।
हे श्री गणेश- मां गौरी जिस प्रकार रत्नावली को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले। Karva Chauth Vrat Katha