सन्तो की वाणी
महावीर जी की वाणी
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ज्ञानी होने का सार यही है, कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। इतना जानना ही पर्याप्त है, कि अहिंसामूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिंसा का विज्ञान है।
जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही बस जीवों को दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य की द्वष्टि से सब पर दया करो।
जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही हैं।
केवल ज्ञान से समस्त पदार्थो को जाननेवाले स-शरीरी जीव अर्हत् हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञानशरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं।
शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्यगुणवाला, अशब्द, अलिडग्ग्राह्य (अनुमान का अविषय)
और संस्थानरहित है ।mahavir-ji-ke-vani
आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम अैार योग है। अर्थात् ये सब आत्मरूप ही है।
जो सत्कार, पूजा और वन्दन तक नहीं चाहता । वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? (वास्तव में) जो सयंत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्षु हैं।
जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है।
तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुँचकर क्यों खड़ा हैं। उसे पार करने में शीघ्रता कर। हे गौतम । क्षण भर का भी प्रमाद मत कर।
हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बन्ध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे ।mahavir-ji-ke-vani