सन्तो की वाणी
रामचन्द्र जी की वाणी
ramchandra-ji-ki-vani
ऐसा कोई व्यक्ति अब तक नहीं जन्मा, जो उस व़ृद्वावस्था को जीत सका हो । जिसके कारण उसकी कोई कामना पूरी नहीं हो पाती। जैसे सूर्यास्त के पीछे पीछे अन्धकार चलता है, वैसे ही वृद्वावस्था के पीछे पीछे मृत्यु चला करती है।
जिस प्रकार भ्रमर हिमपात से कुम्हलाये कमल को त्याग देता है । उसी प्रकार जब इस शरीर पर रोगों और वार्धक्य का आक्रमण होता है । तो उसे जीवन का भ्रमर त्याग देता है संसार का सरोवर बिल्कुल सूख जाता है।
अँतड़ियों और स्नायुओं की जटिलताओं से युक्त यह भंगुर और । परिवर्तनशील शरीर दुःखांे का एक अत्यन्त उर्वर स्त्रोत भी है।
भले ही शरीर क्षणभंगुर है । पर वह मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि शरीर सामान्य भौतिक पदार्थ के समान नहीं है । पर वह पूर्णतः चेतना सभी नहीं है।
शरीर एक ऐसे कछुए के समान है, जो अभिलाषाओं के गढ़े में निष्क्रिय होकर पड़ा हुआ है तथा उससे मुक्त होने का कोई प्रयास नहीं करता।ramchandra-ji-ki-vani
संसार के इस सागर में अनगिनत शरीर इकस्ततः बहते जा रहे हैं। इनमें से कुछ विशिष्ट शरीरों में ज्ञान और विवेक के प्रति ग्रहणशीलता होती है । तथा इन्हीं को मानव-शरीर कहा जाता है।
यह शरीर विमुग्ध आत्मा का आवास-स्थल है तथा यह शाश्वतता और क्षणभंगुरता का विवेक करने में अक्षम है। यह तो मनुष्यों को अज्ञान के गर्त में धकेलने का ही कार्य करता है। अत्यल्प उत्तेजना इसे हर्ष से भर देने या आँसुओं से नहला देने में पर्याप्त है। अतः शरीर के समान घृणित, शोचनीय और अच्छाई से नितान्त विरहित कोई वस्तु नहीं है।
मन का यह प्रेत नितान्त अस्तित्वरहित है। वह तो निस्सार कल्पना के द्वारा ही एक आकार ग्रहण करता है। फिर विवेक से इसके अनास्तित्व का अनुभव किया जा सकता है। इस प्रेत को नियन्त्रित करना अत्यन्त दुष्कर है।
अपनी जड़ता के बावजूद शरीर चैतन्यवान्-सा दिखायी देता है, क्योंकि इसमें आत्मा अपने पंचकोशों के साथ निवास करती है।ramchandra-ji-ki-vani