भगवान बुद्ध की वाणी
buddha gautam ka sandesh – bhagwan buddha ki katha
सन्तो की वाणी में आपको भारत के सन्त और महापुरूषों के मुख कही हुवी व लिखे हुवे प्रवचनों की कुछ झलकियां आपके सामने रखेंगे । आप इसे ग्रहण कर आगे भी शेयर करें जिससे आप भी पुण्य के भागीदार बने ।
मन भाग-1
मन सभी प्रवृतित्तयों का अगुवा है। मन समस्त इन्द्रियों की शक्तियों से उत्कृष्ट है। सभी सापेक्ष विचार मन में ही पैदा होते हैं। bhagwan-buddha
मन सभी संवेदनाओं का अग्रगामी है। इस भौतिक विश्व के समस्त तत्त्वों की अपेक्षा मन सबसे सुक्ष्म है। समस्त विषयभूत चेतना मन में ही उत्पन्न होती है। यदि कोई शुद्व मन से बोलता या काम करता है, तो आन्नद उसकी छाया के समान उसका अनुसरण करता हैं।
दूसरे मुझसे घृणा करते हैं, अविश्वनीय समझते हैं, मेरे बारे में गलतफहमी होती है तथा मुझे धोखा दिया जाता है – जो इस प्रकार के विचारों का पोषण अपने मन में करता है, वह उन कारणों से मुक्त नहीं हो सकता जो उस पर अपना विध्वंसात्मक प्रभाव डालते हैं।
जिसने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह वस्तुतः उस व्यक्ति से महान विजेता है, जिसने यद्यपि से हजार गुना अधिक शक्ति शाली हजार शत्राओें को पराजित तो किया है, पर जो अपनी इन्द्रियों का दास बना हुआ है।
जिसका मन बाहरी सौन्दर्य और वैभवों की खोज में भटकता है, जो अपनी इन्द्रि्रयों पर स्वामी के समान नियन्त्रण रखने में समर्थ नहीं है, जो अशुद्ध भोजन खाता है, जो आलसी है तथा नैतिक साहस से हीन है, उस व्यक्ति को अज्ञान और दुःख ठीक वैसे ही अभित कर लेते हैं जैसे आँधी सूखे वृक्ष को तहस-नहस कर देती है।
जिस प्रकार वर्षा की बूँदे उस घर में टपकती है, जिसकी छप्पर ठीक नहीं होती, इसी प्रकार आसक्ति, घृण और विभ्रम उस मन में प्रवेश करते हैं, जो आत्मतिष्ठा ध्यान से विरत होता है।
जिसका मन काम से लिप्त नहीं है, जो घृणा से प्रभावित नहीं है, जिसने शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग किया है, ऐसे जागरूक व्यक्ति को कोई भय नहीं होता।
जो हदय अज्ञान के पथ का अनुगमन करता है वह व्यक्ति को उसके सबसे घृणित एवं कटटर शत्रु की अपेक्षा अधिक हानि पहुँचाता है।
जिस प्रकार तीर बनानेवाला तीर को सीधा करता है, करता है, ठीक वैसे ही विवेकी व्यक्ति अस्थिर, चंचल, दुर्रक्षित और दुर्नियन्त्रित मन को सीधा कर लेता हैं।
मन का वारण कठिन होता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म, त्वरित तथा आकाक्षित स्थान पर तुरन्त दौड़ जाने वाला होता है। ऐसे मन का नियन्त्रण करना उत्तम है। संयमित मन आनन्द को उत्पन्न करता है।
जिसका मन स्थिर नहीं है, जो सद्धर्म से अवगत नहीं है, जिसकी आस्था चंचल है, ऐसे व्यक्ति की प्रज्ञा कभी भी पुर्ण नहीं होती। bhagwan-buddha