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राज्य की सीमा

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राज्य की सीमा

एक लघु कहानी

आज जिस प्रेरक प्रसंग prerak prasang की बात कर रहें । वह है राज्य की सीमा ।

एक बार एक ब्राह्मण से कोई अपराध हुआ और महाराज जनक ने उसे अपने राज्य से निष्कासित होने का दण्ड दिया । ब्राह्मण ने पुछा, महाराज ! मुझे आप यह बता दें कि आपका राज्य कहाँ तक है, ताकि मैं उसके बाहर ज सकूँ ।

तब राजा जनक सोचने लगे कि वास्तव में उनके राज्य की सीमा कहाँ तक है । पहले तो उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार-सा प्रतित हुआ और फिर मिथिला नगरी पर । आत्मज्ञान के झोंके में वह अधिकार घटकर प्रजा तक और फिर उनके शरीर तक सीमित हो गया, मगर अन्त में उन्हें अपने शरीर पर भी भान नहीं हुआ । वे ब्राह्मण से बोले, आप जहाँ भी चाहें रहें, मेरा किसी भी वस्तु पर अधिकार नहीं है ।

ब्राह्मण को आश्चर्य हुवा, उसने पुछा । महाराज! इतने बड़े राज्य के अधिकारी होते हुए भी आप सभी वस्तुओं के प्रति कैसे निर्मम हो गये हैं ? अभी-अभी तो आप सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार होने की सोच रहे थे न ?

राजा जनक बोले, संसार के सभी पदार्थ नश्वर है । शास्त्रानुसार न तो कोई अधिकारी सिद्ध होता है और न कोई अधिकार योग्य वस्तु ही है । अतः मैं किसे अपने अधिकार में समझूं । जहां तक स्वयं को पृथ्वी का अधिकारी समझने की बात हैं । मैं स्वयं के लिए तो कुछ करता ही नहीं हूं । जो कुछ करता हूं वह देवता, पित्तर, भूत और अतिथि-सेवा के लिए ही करता हूँ । इसलिए पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, प्रकाश और अपने मन पर मेरा अधिकार कैसे हुआ ?

यह सुनते ही ब्राह्मण ने अपना चोला बदल दिया, बोला महाराज ! मैं धर्म हूँ । आपकी परीक्षा लेने के लिये ब्राह्मण-वेश में आपके राज्य में वास कर रहा था । मैं समझ गया कि सत्वगुण-रूप नेमियुक्त ब्रह्मप्राप्तिरूप चक्र के आप ही संचालक है ।

आज हमे यह अहंकार होता है कि । यह मेरे अधिकार में वह मेरे अधिकार क्षेत्र में जबकि यह भ्रम मात्र है. क्योकि हम मोह-माया की जकड़न में बंदे हुए हैं । हमें मोह-माया को त्यागते हुए यह सबक लेना चाहीये की अहंकार से दूर रहेंगे । इस प्रेरक प्रसंग prerak prasang को ज्यादा-ज्यादा शेयर करें ।

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